जीवन क्या है – (एक कबड्डी का खेल)
विश्व विरोधाभास से भरा पड़ा है। जीवन में सद्गुण हैं तो दुर्गुण भी मौजूद हैं। बुद्धिमानी इसी में है कि इनके चक्कर में ज्यादा न उलझा जाए क्योंकि सद्गुण अहंकार पैदा करते हैं जबकि दुर्गुण हमें दुर्गति में पहुंचा देते हैं।
हमारा मन तब तक पूर्ण शांति को प्राप्त नहीं होता है जब तक हम मन एवं शरीर की सीमाएं पहचान कर किसी संत अथवा भगवान का हाथ नहीं थाम लेते।हम जीवन में कबड्डी का खेल ही तो खेल रहे हैं।
कबड्डी में दोनों पक्षों में बराबर खिलाड़ी होते हैं। विपक्ष में जब तक सभी खिलाड़ी आऊट नहीं हो जाते तब तक खेल चलता रहता है।विपक्ष के खिलाड़ियों को आउट करके ही दूसरा पक्ष जीतता है।
मनुष्य के जीवन में सद्गुणों एवं दुर्गुणों के मध्य इसी प्रकार का कबड्डी खेल चलता रहता है।
जीवन की शुरुआत बचपन से
इस जीवन की शुरुआत बचपन से होती हैं। सर्वप्रथम बच्चे का बल बढ़ता है। तत्पश्चात उसके मन में क्रमशः बुद्धि, विद्या, संतोष एवं करुणा जैसे सद्गुणों का विकास होता है। इनके विरुद्ध पाँच दुर्गुण – काम (इच्छायें-वासनाएं), क्रोध, अहंकार, लोभ एवं मोह भी जाने-अनजाने आ जाते हैं।
सद्गुण एवं दुर्गुणों के जोड़े इस प्रकार हैं – बल×काम, बुद्धि×क्रोध, विद्या×अहंकार, संतोष×लोभ, करुणा×मोह। ये दुर्गुण हमारे सद्गुणों के ही नाश नहीं करते बल्कि कभी-कभी तो हम जान से हाथ धो बैठते हैं।
यदि बुद्धिमान पुरुष में अहंकार या अक्खड़पन है तो उसका मन कभी शांत नहीं रह सकता। वह सदैव दूसरों में त्रुटियाँ ही ढूँढता रहेगा। प्रायः सभी ऐसे आदमी से बचते हैं
जो दूसरों में सिर्फ गलतियाँ ही निकालता है। इसी प्रकार संतोष सर्वमान्य अच्छा गुण है पर यदि वह लोभी है उसे न तो आदर मिलेगा न ही मन की शांति।
प्रथम चार सद्गुण (बल, बुद्धि, विद्या, संतोष)
जिस मनुष्य ने इन दुर्गुणों को नियंत्रण में कर लिया है तथा प्रथम चार सद्गुण (बल, बुद्धि, विद्या, संतोष) पूर्णतः धारण कर लिए हैं और जिसके हृदय में सभी के लिए करुणा है, उसकी रक्षा भगवान मोह से उत्पन्न संकट के समय अवश्य करते हैं। पहले चार सद्गुणों वाले मनुष्यों को संकट के समय तभी सहायता मिलती है जबकि वे आस्तिक भाव वाले भी हों।
हमारा मन हमें झूठा विश्वास दिलाता रहता है कि मैं बहुत बुद्धिमान एवं प्रज्ञावान हूँ। हृदय के शुद्धीकरण एवं उपरोक्त पाँच सद्गुणों के धारण से हम आत्मज्ञान की स्थिति में पहुँचते है जहां मन या तो पालतू बन जाता है या इसकी छुट्टी हो जाती है।
यह स्थिति ज्यादा नहीं टिकती और मन फिर जाग्रत हो जाता है, तब आवश्यकता होती है इसे किसी से जोड़ने की। समान्यतः मन भगवान या सद्गुरु से जुड़ जाता है और धीरे-धीरे संत की स्थिति में पहुँच जाता है।
यह नहीं है कि भगवान भक्त से ही प्रसन्न रहते हैं। वे तो उस पर भी अनुकंपा का भाव रखते हैं जो सदा उनसे गाली-गलौज करता रहता है। गाली देने वाला वास्तव में भगवान के अस्तित्व में विश्वास तो रखता है नहीं तो किसे गाली देगा।
हमारी वास्तविक आवश्यकता यह है कि भगवान हमारे इस शरीर को अपना मिशन बना लें। हम तो अर्जुन की भांति उसकी दिव्य क्रीडा अथवा लीला के दर्शक बन जाएँ।
सच्चा ‘भक्त अपने लिए संसार में वैभव, नाम-यश आदि का आकांक्षी भी नहीं रहता। वह तो सहृदयता एवं सेवा का जीता-जागता स्वरूप बन जाता है।
आत्मज्ञान विशुद्ध बौद्धिक शक्तियों का परिणाम है एवं इससे उस मार्ग की शुरुआत होती है जिसे संतों ने सदा भगवान के साम्राज्य में पहुँचने के लिए चुना है। अतएव भगवान की खोज में संत ही हमारे पथ-प्रदर्शक हैं। तो इसी से हम यह जान गए की हमारी ज़िन्दगी का असली मक्सद क्या है।
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